35 वर्षों के नर्मदा बचाओ आंदोलन के संघर्ष ने भारत को क्या दिया?

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नर्मदा बचाओ आंदोलन 35 वर्ष का प्रौढ़ हो गया है। युवावस्था के आंदोलन की कहानियां अब किद्वंतिया बन चुकी है।
इसके बावजूद आंदोलन में यौवन का उत्साह ,उमंग,आक्रोश ,संकल्प आज भी दिखाई पड़ती है। तीसरी पीढ़ी अब नेतृत्व में प्रमुख भूमिका में दिखलाई पड़ती है।

आंदोलन की प्रेरणा से देश में हजारों जन आंदोलन खड़े हुए है और प्रमाणिक जन आंदोलनकारी तैयार हो चुके हैं। 35 वर्षों से समर्पित होकर अनवरत संघर्ष करने वाली मेधा पाटकर अब देश और दुनिया की आइकॉन बन चुकी है। जिसका सम्मान पार्टियों, जातियों, धर्मों, भाषाओं, लिंगों और इलाकाई पूर्वाग्रह के ऊपर उठ कर लगभग सभी के द्वारा किया जाता है।

प्रशासन,पुलिस से जुड़े अधिकारी और विभिन्न सरकारों के विधायक ,सांसद ,मंत्री ,मुख्यमंत्री उनकी विलक्षण प्रतिभा के कायल है। संघर्ष, रचना और विचार का काम एक साथ करने वाले नेतृत्वकर्ता कम पाए जाते हैं। मेधा जी देश के ऐसे गिने-चुने लोगों में से है,जिन्होंने कोरोना काल में भी सरकारों द्वारा अतिथि श्रमिकों पर किये जा रहे अन्याय, अत्याचार,भ्रष्टाचार और भेदभाव को सड़कों पर जाकर चुनौती दी है। हमारे जैसे तमाम साथी उनसे स्थाई तौर पर मास्क का इस्तेमाल करने का कहते हैं, लेकिन उनका स्थाई जवाब होता है कि आप देश की चिंता कीजिए, मेरी नहीं।

परंतु किसी भी आंदोलन के 35 वर्ष बाद उसका मूल्यांकन किया जाना लाजमी है। ऐसा करते समय महत्वपूर्ण प्रश्न यह होता है कि क्या कोई विलक्षण प्रतिभा वाला व्यक्ति किसी आंदोलन को खड़ा करके 35 वर्ष तक चला सकता है? मुझे लगता है वह खींच तो सकता है,लेकिन संगठन को जीवंत रखते हुए चला पाना अत्यंत कठिन कार्य होता है।

आमतौर पर आंदोलनों के बारे में कहा जाता है कि यदि आंदोलन अपनी मांगे मनवाने में सफल होता है तो भी खत्म हो जाता है तथा यदि असफल होता है तो भी खत्म हो जाता है। आंदोलन की उम्र कुछ वर्षों की ही होती है,वह भी मुद्दा आधारित आंदोलन तो और भी अल्पकालिक होता है।

लोगों को लगता था कि सरदार सरोवर बांध के निर्माण को रोकने और विस्थापितों के पुनर्वास के लिए आंदोलन चल रहा था। बांध बन गया संपूर्ण पुनर्वास नहीं हुआ तो आंदोलन खत्म हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यही नर्मदा बचाओ आंदोलन की खासियत है। दूर से देखने वालों को लग सकता है कि यह आंदोलन केवल मेधा पाटकर जी के इर्दगिर्द खड़ा हुआ है लेकिन यह वास्तविकता नहीं है ।

आंदोलन के निर्णय गांव-गांव में बिखरे हुए कार्यकर्ताओं द्वारा ग्राम वासियों को साथ बिठाकर किए जाते हैं। इस तरह जो निर्णय नर्मदा घाटी के ग्राम वासियों के द्वारा होते हैं, उनकी पुष्टि कार्यकर्ताओं की खुली बैठक में की जाती है, उन्हीं फैसलों के सार्वजनिक घोषणा करने का काम मेधा जी द्वारा किया जाता है।

लेकिन गत 35 वर्षों में किसी ने कोई भी प्रेस नोट मेधा पाटकर जी के नाम से जारी होते हुए नहीं देखा या सुना होगा। उसमें आंदोलन के सभी प्रमुख साथियों के नाम होते हैं अंतिम नाम मेधा जी का । मेघाजी नर्मदा बचाओ आंदोलन की ना संयोजक है, ना अध्यक्ष ।अन्य संगठनों से हटकर आंदोलन का कोई पदाधिकारी नहीं है। सही मायने में यही जन आंदोलन है।

आंदोलन की जान उसके समर्पित कार्यकर्ता है, जिन्होंने तन,मन, धन लगाकर पुलिस दमन,फर्जी मुकदमे सहकर भी आंदोलन को इस स्थिति में पंहुचाया है। आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उसके कार्यकर्ता वैचारिक तौर पर प्रशिक्षित है। वे वैकल्पिक विकास की नीतियों पर बहुत स्पष्टता के साथ बात रखते हैं तथा 24 घंटे आंदोलन के लिए समय और साधन देने के लिए तैयार रहते हैं।

जो भी घाटी में आंदोलन के कार्यक्रम में गया होगा, उसने देखा होगा कि आंदोलन के कार्यकर्ताओं के घरों से ही बनवाकर बाहर से आने वाले समर्थकों को खाना खिलाया जाता है तथा कार्यकर्ताओं के घर ही रूकवाया जाता है। नर्मदा बचाओ आंदोलन पर जितने किताबें लिखी गईं , जितनी फिल्में बनी, जितने हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के फैसले आए उतना देश ने किसी दूसरे आंदोलन के बारे में नहीं देखा।

नर्मदा बचाओ आंदोलन के चलते मेधा जी को दुनिया के तमाम बड़े पुरस्कार मिले हैं लेकिन कभी आपको पढ़ने नहीं मिलेगा कि फलाने फलाने पुरस्कार पाने वाली मेधा पाटकर ने कहा कि, जिसका मतलब यह है कि उनकी पहचान किसी पुरस्कार की मोहताज नहीं है। आंदोलन में बाबा आमटे जैसे विख्यात समाजसेवियों को प्रभावित किया। उन्होंने अपना अंतिम समय नर्मदा किनारे बिताया।ख्याति प्राप्त अरुंधति रॉय जब नर्मदा बचाओ आंदोलन के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के बाहर प्रदर्शन कर रही थी तब उन पर वही अवमानना का प्रकरण दर्ज किया था, जो अब प्रशांत भूषण पर किया है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की पैरवी विगत 35 वर्षों से लगातार प्रशांत भूषण, दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे राजेंद्र सच्चर, संजय पारिख, राजीव धवन जैसे देश के ख्याति प्राप्त वकील करते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में खुद मेधाजी नर्मदा बचाओ आंदोलन की पैरवी करती है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन देश का ऐसा अनोखा आंदोलन है जिसके चलते हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे तमाम फैसले दिए हैं जिससे देश के करोड़ों विस्थापितों को लाभ हुआ है। जमीन के बदले जमीन हो या एक विस्थापित को साठ लाख रू देने का फैसले हो। नर्मदा बचाओ आंदोलन की अंग्रेजों के जमाने के भूमि अधिग्रहण कानून की बदलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रेरणा से मुंबई में घर बचाओ,घर बनाओ आंदोलन भी इस तरह से चला , जिसके चलते मुंबई के लाखों गरीबों के मकान टूटने से बचे हैं तथा लाखों के घर बसे हैं। आंदोलन की नेत्री के तौर पर मेधा पूरे देश में लोकप्रिय है लेकिन मैंने उनकी सबसे ज्यादा लोकप्रियता मध्य प्रदेश महाराष्ट्र से भी अधिक केरल राज्य में देखी है। इस लिए ये आंदोलन अपने विलक्षण नेतृत्व के कारण अनोखा प्रतीत हो रहा है।