युवा-तुर्क, भारतीय राजनीति के पितामह, भोड़सी के बाबा जैसे कई नामों से विख्यात भारत के पूर्व प्रधान-मंत्री स्व. चन्द्र शेखर जी का नाम किसी के लिए अंजाना नहीं है। चन्द्रशेखर 1952 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिल होने के बाद समाजवादी विचारधारा की राजनीति के संपर्क में आये। और सोसलिस्ट पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण किये। अपनी बेबाकी के कारण भारतीय राजनीति में चन्द्रशेखर जी अपना एक अनोखा स्थान रखते हैं। समाजवादी विचार धारा के लिए वे अपनों से भी टकराने में नहीं चूकते थे। जिसके परिणाम स्वरूप वे भारतीय राजनीति में एक यायावर की भी जिंदगी जिये। मात्र दस साल (1952-1962) में तीन तीन पार्टियों में काम करना उनके बागी और विद्रोही तेवर की पुष्टि करता है। जिसका विवरण उनके निकटतम सहयोगी और उनके उनके प्रधान मंत्रित्व काल में प्रधान-मंत्री कार्यालय में अतिरिक्त सूचना सलहकार रह चुके श्री हरिवंश (उप प्रमुख, राज्य सभा) और श्री रवि दत्त बाजपेयी ने “चन्द्रशेखर: भारतीय सैद्धान्तिक राजनीति के अंतिम प्रतिरूप” नाम की पुस्तक में दिया है। इस किताब की संक्षिप्त ब्याख्या कॉंग्रेसी नेता और भारत के पूर्व पंचायती राज मंत्री श्री मणि शंकर अइय्यर ने 20 जुलाई, 2019 को इंडियन एक्सप्रेस के अंक में सत्ता और प्रसिद्धि (द पावर एंड द ग्लोरी ) नाम के एक लेख में किया।
1952 के चुनाव में शीर्ष सोसलिस्ट नेताओं में टिकट बँटवारे को लेकर मतभेद हुए लेकिन चन्द्रशेखर पार्टी में रह कर अपने मतभेद को पार्टी फॉरम पर रखते रहे। बाद में वैचारिक मतभेद ज्यादा गहराने के बाद चन्द्रशेखर जी अशोक मेहता और आचार्या नरेंद्र देव के प्रजा सोसालिस्ट पार्टी के साथ चले गये। 1962 में चीन से युद्ध में हार जाने के बाद जब अशोक मेहता ने जब कॉंग्रेस को पाठ पढ़ने के लिए सभी समान और समाजवादी विचार धारा की पार्टियों को एक साथ आने की बात की तो चन्द्रशेखर रोष में आ गये। और प्रजा सोसलिस्ट पार्टी से अलग हो गए। मात्र छह महीना के बाद वे काँग्रेस में शामिल हो गये। वैसे तो वे 1962 में काँग्रेस से ही राज्य सभा पहुंचे। लेकिन जब इन्दिरा गांधी ने चन्द्रशेखर से पूछा अब काँग्रेस के लिए तुम क्या करोगे? चन्द्रशेखर जी ने कहा हम काँग्रेस को समाजवाद के रास्ते पर लाने की कोशिश करेंगे। इन्दिरा जी ने फिर बड़ी उत्सुकता के साथ पूछा अगर काँग्रेस समाजवाद के रास्ते पर नहीं आई तो? बिन ठहराव और निर्भीकता के साथ चन्द्रशेखर जी ने जबाब दिया की हम काँग्रेस को तोड़ देंगे। इन्दिरा जी अबाक होकर चन्द्रशेखर जी को देखती रह गयीं। बैंकों के एकीकरण के समय जिस तरह से इन्दिरा गांधी के साथ उनके मतभेद नजर आये। उससे साफ जाहीर होता है कि काँग्रेस में पहुँच कर भी उनके बागी और विद्रोही तेवर में कोई कमी नहीं आई। उन्हें इमर्जेंसी के दौरान कोंग्रेसी नेता होते हुए भी जेल में जाना पड़ा। 1991 में जब काँग्रेस की तरफ से उनके सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश हुई तो चन्द्रशेखर अपने विचारों पर अडिग रहते हुये त्याग पत्र देने को तैयार हो गए। फिर काँग्रेस ने जब मान मनौल की पहल की तो चन्द्रशेखर इस तर्क के साथ अपने निर्णय पर अडिग रहे कि हमारे विचार सुबह कुछ और, शाम को कुछ और नहीं होते हैं। और अंततः उन्होने त्याग पत्र दे ही दिया। इस तरह चन्द्रशेखर जी के पूरे राजनैतिक जीवन काल को देखें तो उन्हें जो भी बात अच्छी लगी, सामने वाले की व्यक्तित्व और हैसियत की परवाह किये बिना बड़ी साफ गोई और निडरता से किसी के भी सामने अपनी बात रखी। जिसका खामियाजा उन्हे समय-समय पर भुगतना भी पड़ा। लेकिन उनका बागी और बेबाकी तेवर बलिया के लोगों को पसंद था। और इसी कारण विकास का कोई ख़ास काम न होते हुए भी बलिया के लोग उन्हें आजीवन अपना सांसद बनाये।
1982 में भारत की पदयात्रा के बाद भी उन्हें 1985 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। फिर उन्हें राज्य सभा से सदन में बुलाने कि पहल हुई। लेकिन चन्द्रशेखर जी को लगा की आम चुनाव में जनता ने हमें सदन के बाहर रहने का जनादेश दिया है। अगर मैं दूसरे दरवाजे से सदन में आता हूँ तो जानता के निर्णय को पलटने वाला काम होगा। इसलिए उन्होने राज्य सभा जाने से माना कर दिया। इससे साफ दिखता है कि चन्द्रशेखर जी के विचार हमेशा शाश्वत होते थे। जिनमें गतिशीलता की गुंजाइश नहीं थी। इस तरह अगर चन्द्र शेखर के राजनीतिक जीवन को देखे तो अपनी बेबाकी और शाश्वत प्रवृति के कारण वे अपने पथ के अकेले पथिक की तरह दिखते हैं।
चन्द्रशेखर जी बतौर सांसद सदन के फर्श से वैश्वीकरण और उदारीकरण के प्रभाव से सार्वजनिक संपति को बेचने के कारण भाजपा के नेताओं को लायक और नालायक में अंतर बताया कि जो व्यक्ति पुरखों की विरासत को संजोकर नहीं रख सकता वो नालायक है। आज ये सवाल उनके अपनों के सामने भी खड़ा है। पोटा, पोखरण जैसे मुद्दे पर चन्द्रशेखर जी की सदन के अंदर क्या स्थिति थी। चन्द्रशेखर जी के भाषणों के माध्यम से समझा जा सकता है। चंद्रशेखर जी के लिये समाजवाद, हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के क्या मायने हैं? हम उनकी सदन की पटल पर रखी गई बातों से समझ सकते हैं। लेकिन उनके अपने लोग आज की राष्ट्रीयता और समाजवाद में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। भाजपा के लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव को चन्द्रशेखर जी के लोहिया और नरेंद्र देव से विभेद कर पाने में अक्षम हैं। परिणाम-स्वरूप चन्द्रशेखर जी के शाश्वत विचार आज बदले और विकृत दिखते हैं।